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कुछ त्रिवेणियाँ / गुलज़ार

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लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गुलज़ार]][[Category:कविताएँ]]}}[[Category:गुलज़ारत्रिवेणियाँ]]
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* '''१.'''<br>मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे<br>
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने<br><br>
रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे<br><br>
'''२.'''<br>सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा(भिक्षापात्र)<br>
रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें<br><br>
सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।<br><br>
'''३.'''<br>सामने आये मेरे,देखा मुझे,बात भी की<br>
मुस्कराए भी,पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर<br><br>
कल का अख़बार था,बस देख लिया,रख भी दिया।<br><br>
'''४.'''<br>शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर<br>
किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को<br><br>
तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?<br><br>
'''५.''<br>ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी<br>
ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी<br><br>
खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!<br><br>
'''६.'''<br>लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा<br>
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर<br><br>
यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?<br><br>
'''७.'''<br>आप की खा़तिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ<br>
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!<br><br>
चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो खू़न आ जायेगा<br><br>
'''८.'''<br>पौ फूटी है और किरणों से काँच बजे हैं<br>
घर जाने का वक्‍़त हुआ है,पाँच बजे हैं<br><br>
सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!<br><br>
'''९.'''<br>बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख्‍़वाहिशें ऐसे दिल में<br>
‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।<br><br>
थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख्‍़वाहिशें मुझ से।<br><br>
'''१०.'''<br>तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे<br>
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!<br><br>
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!<br><br>
'''११.'''<br>कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है<br>
क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे<br><br>
ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।<br><br>
'''१२. '''<br>वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन<br>
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था<br><br>
फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।<br><br>
'''१३.'''<br>वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा<br>
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने<br><br>
कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!<br><br>
'''१४. '''<br>कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा<br>
कोई साथ आया था,उन्हें ले गया,फिर नहीं लौटे<br><br>
शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!<br><br>
'''१५.'''<br>इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने<br>
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा<br><br>
छाले जैसा चांद पडा़ है उंगली पर!<br><br>
'''१६. '''<br>बुड़ बुड़ करते लफ्‍़ज़ों को चिमटी से पकड़ो<br>
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।<br><br>
अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।<br><br>
'''१७.'''<br>चूड़ी के टुकड़े थे,पैर में चुभते ही खूँ बह निकला<br>
नंगे पाँव खेल रहा था,लड़का अपने आँगन में<br><br>
बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!<br><br>
'''१८.'''<br>चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं<br>
रोड़े, पत्थर और गु़ल्लों से दिन भर खेला करता था<br><br>
बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!<br><br>
'''१९.'''<br>कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं<br>
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से <br><br>
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!<br><br>
'''२०.'''<br>कोने वाली सीट पे अब दो और ही कोई बैठते हैं<br>
पिछले चन्द महीनों से अब वो भी लड़ते रहते हैं<br><br>
क्लर्क हैं दोनों,लगता है अब शादी करने वाले हैं<br><br>
'''२१. '''<br>कुछ इस तरह ख्‍़याल तेरा जल उठा कि बस<br>
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में<br><br>
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!<br><br>
'''२२.'''<br>कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं<br>
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है<br><br>
क्यों इस फौ़जी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।<br><br>
'''२३. '''<br>आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम<br>
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।<br><br>
दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से<br><br>
'''२४.'''<br>नाप के वक्‍़त भरा जाता है ,रेत घड़ी में-<br>
इक तरफ़ खा़ली हो जबफिर से उलट देते हैं उसको<br><br>
उम्र जब ख़त्म हो ,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?<br><br>
'''२५. '''<br>तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं<br>
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शे’र मिलते थे<br><br>
ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?<br><br>