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Kavita Kosh से
नखरे बड़े हुज़ूर के
तोड़ रहे हैं छत पर चढ़कर पत्ते बड़े खजूर के ।
नीले-नीले आसमान में
दिया जले जैसे मकान में
बैठ गए हैं सई-साँझ से रंग लिए अमचूर के ।
सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ते जाते
धीरे-धीरे बढ़ते जाते
इतने बढ़ जाते हैं जैसे फुलके हों तन्दूर के ।
कभी दिखें नाख़ून बराबर
कभी दिखें फूटी-सी गागर
कभी-कभी हफ़्तों छिप जाते मारे किसी गरूर के
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