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(लावनी, धुन लावनी-ताल कहरवा)

इधर उधर क्यों भटक रहा मन-भ्रमर, भ्रान्त उद्देश्य विहीन।
क्यों अमूल्य अवसर जीवनका व्यर्थ खो रहा तू, मतिहीन॥
क्यों कुवास-कंटकयुत विषमय विषय-बेलिपर ललचाता।
क्यों सहता आघात सतत, क्यों दुःख निरन्तर है पाता॥
विश्व-वाटिकाके प्रति-पदपर भटक भले ही, हो अति दीन।
खाकर ठोकर द्वार-द्वारपर हो अपमानित, हीन-मलीन॥
सह ले कुछ संताप और, यदि तुझको ध्यान नहीं होता।
हो निराश, निर्लज्ज भ्रमण कर फिर चाहे खाते गोता॥
विसमय विषय-बेलिको चाहे कमल समझकर हो रह लीन।
चाहे जहर-भरे भोगोंको सलिल समझकर बन जा मीन॥
पर न जहाँतक तुझे मिलेगा पावन प्रभु-पद-पद्म-पराग।
होगा नहीं जहाँतक उसमें अनुपम तव अनन्य अनुराग॥
कर न चुकेगा तू जबतक अपनेको, बस, उसके आधीन।
होगा नहीं जहाँतक तू स्वर्गीय सरस सरसिज-‌आसीन॥
नहीं मिटेगा ताप वहाँतक, नहीं दूर होगी यह भ्रांति।
नहीं मिलेगी शांति सुखप्रद, नहीं मिटेगी भीषण श्रांति॥
इससे हो सत्वर, सुन्दर हरि-चरण-सरोरुहमें तल्लीन।
कर मकरंद मधुर आस्वादन, पापरहित हो पावन पीन॥
भय-भ्रम-भेद त्यागकर, सुखमय सतत सुधारस कर तू पान।
शान्त-‌अमर हो, शरणद चरण-युगलका कर नित गुण-गण-गान॥
</poem>
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