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<poem>
(राग नूरसारंग-ताल त्रिताल)

भोग अति दुःख नरक के मूल।
भजो न इन्हहिं कबहुँ इंद्रिय-मन सुख-निमि करि भूल॥
उपजत अघ अति, बिबिध दुःख, भव-याधि भोग के संग।
मानव-जीवन कौ सुचि-सुन्दर बिगरत सगरौ रंग॥
नित कुत्सित धन-मान, कीर्ति-पद की इच्छा अनिवार।
नित बिस्वास-हनन, छल, मिथ्या, कपट, असद्‌‌ व्यवहार॥
राग-द्वेष, द्रोह-निर्दयता, नित्य बिषम उर दाह।
नित्य अधर्मपरायनता, नित असन्मार्ग-‌उत्साह॥
नित्य बैर, हिंसा-प्रतिहिंसा, नित्य बितंडावाद।
नित दुख, नित असांति-चिंता-भय, नित ही सोक-बिषाद॥
फलसरूप अति मरन दुःखमय, मरनोर दुख-भोग।
नीच जोनि, दारिदर्‌य, रोग-दुख, नरकजोनि-संजोग॥
या तैं जे तजि भोग दुःखमय, सेवत हरि सुखरूप।
ते मानव पावत भगवत्सुख दिव्य, अनन्य, अनूप॥
</poem>
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