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<poem>
(राग केदारा-ताल तीन ताल)

देख निज नित्य निकेतन द्वार॥
भूला निज निर्मल स्वरूपको, भूला कुल-व्यवहार।
फ़ूला, फ़ँसा फिर रहा संतत, सहता जग फटकार॥
पर-पुर, पर-घरमें प्रवेश कर, पाला पर-परिवार।
पड़ा पाँच चोरोंके पल्ले, लुटा, हु‌आ लाचार॥
अब भी चेत, ग्रहण कर सत्पथ, तज माया-‌आगार।
उज्ज्वल प्रेम-प्रकाश साथ ले, चल निज गृह सुख-सार॥
शम-दमादिसे तुरत निधनकर काम-क्रोध-बटमार।
सेवन कर पुनीत सत-संगति पथशाला श्रमहार॥
श्रीहरिनाम शमन भय-नाशक निर्भय नित्य पुकार।
पातक-पुञ्ज नाश हों सुनकर ‘हरि हरि हरि’ हुंकार॥
आश्रयकर, शरणागत-वत्सल प्रभु-पद-कमल उदार।
निज घर पहुँच, नित्य चिन्मय बन, भूमानन्द अपार॥
</poem>
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