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|रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार
|अनुवादक=
|संग्रह=पद-रत्नाकर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
}}
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<poem>
(राग जंगला-ताल कहरवा)
काननि सुनौं स्याम की मुरली, नैननि निरखौं रूप ललाम।
घ्राननि सूँघौं अंग-गंध सुचि, परसौं त्वचा अंग अभिराम॥
रसना चखौं प्रसाद मधुर अति, बानी नित्य करै गुन-गान।
मन में बस्यौ रहै नित मेरे आठौं जाम मधुर रस-खान॥
करत संग अनवरत अनूपम मन-इंद्रिय सब भए निहाल।
पाय मधुर-रस ब्रह्मा-परस, रति बढ़त निरंतर निरवधि काल॥
</poem>
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(राग जंगला-ताल कहरवा)
काननि सुनौं स्याम की मुरली, नैननि निरखौं रूप ललाम।
घ्राननि सूँघौं अंग-गंध सुचि, परसौं त्वचा अंग अभिराम॥
रसना चखौं प्रसाद मधुर अति, बानी नित्य करै गुन-गान।
मन में बस्यौ रहै नित मेरे आठौं जाम मधुर रस-खान॥
करत संग अनवरत अनूपम मन-इंद्रिय सब भए निहाल।
पाय मधुर-रस ब्रह्मा-परस, रति बढ़त निरंतर निरवधि काल॥
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