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<poem>
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)

हर लो प्रभु! मेरी भोग-दासता भारी।
कर लो मुझको ‘निज दास’ नाथ अघहारी॥
मैं रटूँ तुहारा नाम नित्य भयहारी!।
मैं सेवा नित तन-मनसे करूँ तुहारी॥
मिट जायँ काम-‌आसक्ति समस्त मुरारी!।
हट जाय मोह-ममताकी माया सारी॥
रह जाय न मद-‌अभिमान, मान-मदहारी!।
हों उदय सहज शुचि दैन्य-विनय बनवारी॥
खुल जायँ ज्ञानके नेत्र दिव्य तमहारी।
दीखे लीला सर्वत्र सदा सुखकारी॥
मैं देखूँ सबमें सदा तुम्हें, मनहारी।
मैं सबका सुख-हित करूँ, सर्वहितकारी!॥
बन जान्नँ लीलाभूमि तुहारी प्यारी।
तुम खेलो फिर मनमाने लीलाकारी!॥
रह जाय न कुछ भी सा मेरी न्यारी।
तुम ही लीला, लीलामय-सभी बिहारी!॥
</poem>
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