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Kavita Kosh से
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थाह तक छूने नहीं देता
इस तरह दम घोंटती है
बदल जाती हैं
सुबह से पूर्व ही तिथियाँ
दोपहर है भीड़ का जंगल
थाह तक छूने नहीं देता
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