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|संग्रह=पद-रत्नाकर / हनुमानप्रसाद पोद्दार‎
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<poem>
(राग जंगला-ताल कहरवा)

प्रभु अनन्त आनन्द-सुधा-निधि-है यह दृढ़ विश्वास।
वे प्रियतम प्रभु नित्य तुम्हारे ही रहते हैं पास॥
डूबी रहो उन्हीं रस-‌आनन्दाबुधिमें दिन-रात।
मनमें क्यों आने देती हो व्यर्थ दूसरी बात॥
वे लीलामय करते रहते लीला नित्य विचित्र।
लीलाके स्वाँगोंको क्यों तुम मान रही अरि-मित्र॥
देखो उनके विविध रस-भरे लीला-खेल अनेक।
तनिक न उगने दो भ्रम-‌अंकुर रखो पूर्ण विवेक॥
देखो नित्य उन्हींके मृदु मुसकाते मुखकी ओर।
रहो सदा रसमा, रहो नित ही आनन्द-विभोर॥
पाती रहो सदा तुम उनका मधुरालिन्गन-स्वाद।
बाहर-भीतर भरे रखो नित प्रभुका प्रीति-प्रसाद॥
</poem>
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