भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमोद कुमार तिवारी |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=प्रमोद कुमार तिवारी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
गजब के विरोधाभाषी बाबा हैं
अपने नाम के विपरीत
अक्सर डर से बचाते हैं ये
कुछ ज्यादा सर्वव्यापी हैं अपने बाबा
अगर बच-बचा के न चलें
तो अचके में पता चले कि पाँव के नीचे जो पिंडी है
वो फलाने दइतरा हैं।
भिन्न-भिन्न आकारों में
लाल रंग के कपड़े में लिपटा एक शंकु।
दइतरा को देख के मिल जाता है पता
उनकी जाति और औकात का
ज्यादातर मिलती है जीर्ण सी झंडी, दो जर्जर खड़ाऊँ
कोई नामपट्ट नहीं, सारे बाबाओं के नाम छपे हैं
लोगों के मन की दीवारों पर
स्मृतियों की नदी में बहते रहे हैं ये
सदियों से।
सड़क किनारेवाले बाबा हो जाते हैं समृद्ध
गुजरते ट्रैक्टरों से फेंके गए
खुदरा ईंटों से
गजब के दरियादिल हैं बाबा
रात में अकेले गुजरते व्यक्ति के साथ हो जानेवाले
और नकियाए आवाज में कहने वाले कि 'जाओ सब ठीक है'
बस उस पीपल के पास रास्ता छोड़ के उतर जाना
बाबा खयाल रखते हैं अपनी जाति और इलाके के लोगों का
गोत्र तक के आधार पर देते हैं सुविधा
और खुद भी पाते हैं विशेष आदर
काम के स्तर के हिसाब से कर देते हैं इशारा
कि नवमी में चढ़ा देना एक मुर्गा और लँगोटी
या फिर कोरा धोती के साथ एक खस्सी।
कभी-कभी तो अपने डीहवालों को बचाने खातिर
भूतों से कुश्ती तक लड़ते हैं
जाहिर है, हर बार जीत उन्हीं की होती है
गजब के बाबा हैं ये
कई बार राहगीरों को रोक
माँग लेते हैं खैनी।
यूँ बाबा भी जानते हैं
खैनी और लँगोटी से ज्यादा
देने को है ही क्या
उनके भक्तों के पास!
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=प्रमोद कुमार तिवारी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
गजब के विरोधाभाषी बाबा हैं
अपने नाम के विपरीत
अक्सर डर से बचाते हैं ये
कुछ ज्यादा सर्वव्यापी हैं अपने बाबा
अगर बच-बचा के न चलें
तो अचके में पता चले कि पाँव के नीचे जो पिंडी है
वो फलाने दइतरा हैं।
भिन्न-भिन्न आकारों में
लाल रंग के कपड़े में लिपटा एक शंकु।
दइतरा को देख के मिल जाता है पता
उनकी जाति और औकात का
ज्यादातर मिलती है जीर्ण सी झंडी, दो जर्जर खड़ाऊँ
कोई नामपट्ट नहीं, सारे बाबाओं के नाम छपे हैं
लोगों के मन की दीवारों पर
स्मृतियों की नदी में बहते रहे हैं ये
सदियों से।
सड़क किनारेवाले बाबा हो जाते हैं समृद्ध
गुजरते ट्रैक्टरों से फेंके गए
खुदरा ईंटों से
गजब के दरियादिल हैं बाबा
रात में अकेले गुजरते व्यक्ति के साथ हो जानेवाले
और नकियाए आवाज में कहने वाले कि 'जाओ सब ठीक है'
बस उस पीपल के पास रास्ता छोड़ के उतर जाना
बाबा खयाल रखते हैं अपनी जाति और इलाके के लोगों का
गोत्र तक के आधार पर देते हैं सुविधा
और खुद भी पाते हैं विशेष आदर
काम के स्तर के हिसाब से कर देते हैं इशारा
कि नवमी में चढ़ा देना एक मुर्गा और लँगोटी
या फिर कोरा धोती के साथ एक खस्सी।
कभी-कभी तो अपने डीहवालों को बचाने खातिर
भूतों से कुश्ती तक लड़ते हैं
जाहिर है, हर बार जीत उन्हीं की होती है
गजब के बाबा हैं ये
कई बार राहगीरों को रोक
माँग लेते हैं खैनी।
यूँ बाबा भी जानते हैं
खैनी और लँगोटी से ज्यादा
देने को है ही क्या
उनके भक्तों के पास!
</poem>