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<poem>
सत्य का मुख देखते हुए
अपनी सुई में डालता है जुलाहा धागा

संशय की महीन बुनावट से परे
जारी रखता है अपना काम
सिलाई तगाई और टाँकने की शर्तें

सूर्य की ओर ताकते हुए
उड़ती हैं अनगिन सतरंगी चिडि़याँ
बसेरे से दूर अनथक लगी रहतीं
दाने तिनके की आस में

देखने में ये दोनों दृश्य अलग-अलग हैं
मगर भाषा के मानसरोवर में
एक ही आशय में तिरोहित हुए जाते हैं.
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