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<poem>
वही फुटपाथ है वही भीड़ वही कोलाहल निर्लिप्त व्यस्ततायें भी वही
वही धुआँ वही धूल मृत कोलतार की धूसर देह पर बिलबिलाती दीमकों का उफान भी वही
पर वसंत है अभी नंदन वन में यहाँ इसी धरती पर
उसी फुटपाथ पर
उसी ‘लैंड क्रूज़र’ के पहियों की ठीक बगल में
वही लिथड़ी कीटाणु भरी देह मरे मुरझाये पिलियाये केश हरितिमा की खिलती चमक में बदल चुके हैं!
माँ दौड़ी आई किसी पिछवाड़े से और लपक कर गोद में भर लिया उसे
उसकी आँखों में शहद है
पिघलता चेहरा पारिजात है पोर पोर बदन सृष्टि का सनातन संगीत
उसकी ध्वनियों को सुनो इस दृश्य में
अचानक यह तेज़ भागता शहर स्लो मोशन में चलता हुआ एक फ्रीज़ शॉट में बदल गया है सिर्फ एक ही आंदोलित दृश्य है यहाँ इस फुटपाथ पर उसकी सुर लहरी में सारा शहर फेड आउट हो कर वाटर कलर के रंगों सा आपस में घुल रहा है हर तरफ संगीत यह जीवन का जीवन को पुकारता जीवन को जन्म देता हुआ
यहाँ अर्थ नहीं काम नहीं मोक्ष नहीं
यहाँ ब्रॅण्ड नहीं विज्ञापन नहीं प्रदर्शन नहीं
यहाँ दो आत्माएं हैं एक दूसरे से उगी हुई पैदा हुई एक दूसरे से
हमारे नारे हमारे कोरस हमारी क्रांतियाँ यहाँ ठहर जाती हैं
शुद्ध मानव के इस विराट के समक्ष
शब्दहीन हो!

जाओ बेचो कहीं और कुछ और
नापो अपने सेंसेक्स अपनी प्रगति अपने पैमानों से
बढ़ाओ अपने टर्नओवर, चमकाओ अपनी बैलेंस शीट
यहाँ अभी भी कुछ बचा हुआ है तुम्हारे बावजूद भी
तुम्हारी हवस के पंजे जिससे टकरा कर टूट जाते हैं

योजनाओं विमर्शों सत्ता के क्रूर संघर्षों लोभ की चपेट से बाहर
मैं लौटता हूँ हृदय में वही मानव लिये
शुद्ध और खुरदुरा!
</poem>
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