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<poem>
हवाओं ने सुनाया एक दिन
वह किस्सा
जो रोती अनारकली ने सुनाया था उन्हें.
नहीं समझ सकी थी
सत्ता की पत्थर दिल ताक़त
और न ही महसूस कर पाया ख़ुदा जिसे.
किस्से के तन्तुओं में छितरायी अनारकली
मन के हर मोर्चे पर
छोटे-मोटे विश्व-युद्ध लड़ती रही,
चुकती रही क्रमशः.
उसकी कई आदतों,
चाल-ढाल, बात-व्यवहार
और कई निजी चीज़ों के बारे में
बताते-बताते रुँध गया गला
किस्सा कहती हवा का.
फिर उर्मिला, यशोधरा, तारा...
अनेक औरतों के नाम
ले डाले उसने एक ही सिसकी में;
कुछ दब भी गए उसकी लम्बी हिचकी में,
इसमें एक नाम शायद क्लियोपेट्रा का भी था.
कहने लगी
इज़रायली हमले में मारे गए अपने
निर्दोष प्रेमी की लाश लिए
शिनाख़्त को भटकती प्रेमिका
गज़ा पट्टी के ध्वस्त शवगृह
तक ही जा सकी
किसी तरह
शीतल चेहरा खून के छींटों से
त्रस्त-सा
आँख, दिमाग़ और कदमों में
बदहवासी
मन में निराश, तन में उदासी
यह स्त्री अनारकली का
आधुनिक लिप्यान्तरण है;
इससे ज़्यादा कैसे बदल सकती है
कोई लिपि,
सिर्फ चार-पाँच सदियों में!
</poem>
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