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Kavita Kosh से
नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा
गर्व बहुत था मुझे, कि हूं मैं भी संन्यासी।
मन मेरा दृढ है, अडिग है और रहेगा
अगो भी, तब तक, जब तक रवि शशि तारक हैं
टिके गगन में , डिगा नहीं सकता कोई भी
मन मेरा। पर पहली ही लहर तुम्हारे
छवि की छलकी, वहम बह गए, सारे के सारे।
यह लगा कि वह तू ही है, बरसों से जिसको
ढूंढ ढूंढ कर हार गया था अन्तेवासी।
चलो हुआ यह अच्छा, भरम मिटा तो मेरा।
चलो कि एक दिन अपने इस अडियल अहम को
आहत होना था, सो यह भी आज हो गया।
कितनी सुंदर घडी सलोनी थी उस दिन वह
जब कि टूटा, टूट टूटकर हुआ था तेरा।
नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा।
1988
मन मेरा दृढ है, अडिग है और रहेगा
अगो भी, तब तक, जब तक रवि शशि तारक हैं
टिके गगन में , डिगा नहीं सकता कोई भी
मन मेरा। पर पहली ही लहर तुम्हारे
छवि की छलकी, वहम बह गए, सारे के सारे।
यह लगा कि वह तू ही है, बरसों से जिसको
ढूंढ ढूंढ कर हार गया था अन्तेवासी।
चलो हुआ यह अच्छा, भरम मिटा तो मेरा।
चलो कि एक दिन अपने इस अडियल अहम को
आहत होना था, सो यह भी आज हो गया।
कितनी सुंदर घडी सलोनी थी उस दिन वह
जब कि टूटा, टूट टूटकर हुआ था तेरा।
नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा।
1988