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वृद्धाश्रम / विजय कुमार

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<poem>
अन्तिम दिनों में
कोई बात नहीं
बातों के टुकड़े थे
इतनी झीनी झीनी चदरिया कटी -फटी
इसी में जीना था
फिर विस्मृति थी

हमने सोचा कि उनके अस्फ़ुट स्वर
उनके विगत से भीगे हुए हैं
पर नहीं
घर अब छूट गये थे उनसे
कोई विघ्न नहीं था वहां

देह थी अब सिर्फ़ देह
वे देह को पहने हुए एक पोशाक की तरह
घूमते थे
अपने हंसने रोने से बाहर

उन्होंने अंतरिक्ष में
एक भंगिमा रची पृथ्वी के भग्नावेशों की
प्रतीक्षा की
अंधेरी रात में तारे गिने
फिर खडे़ हो गये
मृत्यु की देहरी पर

हम उन्हें देखते थे
वे कहीं और देखा करते थे
ये उंगलियां
जो जर्जर थीं
हमारे चेहरोँ को हल्के से छूती थीं
फिर लौट लौट जाती थीं

हर किसी का जीवन
उसका अपना था
मुलाकात के घन्टे खत्म होने पर
विदा के समय
निशब्द वे
हमें द्वार तक छोड़ने आते थे

</poem>
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