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|रचनाकार=विजय कुमार
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
टेलिविज़न पर
उस अभिनेत्री की पीठ थी कैमरे की तरफ
चेहरा छिपा रहा सारा समय
अपने उन दिनों में टहलते
शायद उसकी आँखें अपना जादू खो बैठी थीं
शायद उसका चेहरा बदल गया था
शायद त्वचा पर अब झुर्रियों का जंगल था
शायद आवाज़ लरज गई थी
पता नहीं किस तरह का होगा उसका थका हुआ वर्तमान
यह सब उसने बताया नहीं
यह सब हमने जानना नहीं चाहा
उसके वहाँ होने
और हमारे न जानने के बीच
एक ठहरा हुआ समय था
साठ के दशक का
अभी न जाओ छोड़ कर
कि दिल अभी भरा नहीं
हम ठिठके खड़े थे एक नींद में
और वह भी संगदिल तो नहीं थी
इस तरह
हमारी आशिक़ी को ज़िंदा रखा उस अभिनेत्री ने
हमारे स्वप्न में
कैमरे की तरफ अपनी पीठ किए हुए
बस यूं टेलीविज़न पर चलता रहा
उसका वह संवाद
उसकी कोई अनधिकृत इच्छा नहीं थी
उसने कोई दखल नहीं दिया
जीवन के गतिमान नियमों में
कैमरे के भीतर वह एक छाया थी
कैमरे के बाहर भी अब वह एक छाया थी
हम उसके आशिक
अरे ! हम भी कहाँ थे इस पूरे समय
अपनी ही किसी छाया से बाहर
</poem>
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<poem>
टेलिविज़न पर
उस अभिनेत्री की पीठ थी कैमरे की तरफ
चेहरा छिपा रहा सारा समय
अपने उन दिनों में टहलते
शायद उसकी आँखें अपना जादू खो बैठी थीं
शायद उसका चेहरा बदल गया था
शायद त्वचा पर अब झुर्रियों का जंगल था
शायद आवाज़ लरज गई थी
पता नहीं किस तरह का होगा उसका थका हुआ वर्तमान
यह सब उसने बताया नहीं
यह सब हमने जानना नहीं चाहा
उसके वहाँ होने
और हमारे न जानने के बीच
एक ठहरा हुआ समय था
साठ के दशक का
अभी न जाओ छोड़ कर
कि दिल अभी भरा नहीं
हम ठिठके खड़े थे एक नींद में
और वह भी संगदिल तो नहीं थी
इस तरह
हमारी आशिक़ी को ज़िंदा रखा उस अभिनेत्री ने
हमारे स्वप्न में
कैमरे की तरफ अपनी पीठ किए हुए
बस यूं टेलीविज़न पर चलता रहा
उसका वह संवाद
उसकी कोई अनधिकृत इच्छा नहीं थी
उसने कोई दखल नहीं दिया
जीवन के गतिमान नियमों में
कैमरे के भीतर वह एक छाया थी
कैमरे के बाहर भी अब वह एक छाया थी
हम उसके आशिक
अरे ! हम भी कहाँ थे इस पूरे समय
अपनी ही किसी छाया से बाहर
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