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धूमिल साँझ / किशोर काबरा

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{{KKRachna
|रचनाकार=किशोर काबरा
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मैंने तो सोचा था - चलकर पा लूँगा मंज़िल की सीमा
इतनी लंबी राह कि थक कर चूर हो गया चलते-चलते।
पा लूँगा विश्राम ज़रा-सा
इतनी धूमिल साँझ कि मैं भी धूल हो गया ढलते-ढलते।
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