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व्यर्थ हो गया / किशोर काबरा

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|रचनाकार=किशोर काबरा
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>
दृष्टि नहीं तो दर्पण का सुख व्यर्थ हो गया।
 
कृष्ण नहीं तो मधुबन का सुख व्यर्थ हो गया।
 
कौन पी गया कुंभज बन कर खारा सागर?
 
अश्रु नहीं तो बिरहन का सुख व्यर्थ हो गया।
 
ऑंगन में हो तरह-तरह के खेल-खिलौने,
 
हास्य नहीं तो बचपन का सुख व्यर्थ हो गया।
 
भले रात में कण-कण करके मोती बरसें,
 
भोर नहीं तो शबनम का सुख व्यर्थ हो गया।
 
गीत बना लो, गुनगुन कर लो, सुर में गा लो,
 
ताल नहीं तो सरगम का सुख व्यर्थ हो गया।
</poem>
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