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Kavita Kosh से
जो तमाम दूरियों से भी ताउम्र निराश नहीं होती)
कहा था, कांच हूंकाँच हूँ, पार देख लोगे तुम मेरे
मेरी पीठ पर क़लई लगाकर ख़ुद को भी देखोगे बहुत सच्चा
जिस दिन टूटूंगा, गहरे चुभूंगा, किरचों को बुहारने को ये उम्र भी कम लगेगी
तुमसे प्रेम करना हमेशा अपने भ्रम से खिलवाड़ करना रहा
स्वप्न में हुए एक सुंदर प्रणय को उचक कर छू लेना चाहता हूंहूँ
लेकिन चंपा मेरी उचक से परे खिलती है
मैं उसकी छांव छाँव में बैठा उसके झरने की प्रतीक्षा करता हूंहूँ
एक अविश्वसनीय सुगंध
उम्मीद की शक्ल में मेरे सपने में आती है
मुझे देखो, मैं एक आदमक़द इंतज़ार हूंहूँमैं सुबह की उस किरण को सांत्वना देता हूंहूँ
जो तमाम हरियाली पर गिरकर भी कोई फूल न खिला सकी
चंपा के फूलों की पंखुडिय़ां सहलाता हूं हूँ उनकी सुगंध से ख़ुद को भरता तुम्हारे कमरे के कृष्ण से पूछता हूं हूँ
चंपा के फूल पर कभी कोई भंवरा क्यों नहीं बैठता
दो पहाडिय़ों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते, खाई भी जोड़ती है
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