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{{KKRachna
|रचनाकार=मनोज कुमार झा
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|संग्रह=तथापि जीवन / मनोज कुमार झा
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इतना घना जंगल दिखता नहीं एक भी पका फल
किस घाट का पानी इसमें डाभ नहीं कर रहा ढबढब
इतने रंग चकमक मगर बन नहीं पाता इंद्रधनुष इन्द्रधनुष क्या रंगों के दूध फटे हुए।हुए ।
घर ही तो छोड़ा एक खुली तो है पूरी पृथ्वी
पर कहीं भी गाड़ूँ खंभा खम्भा वहीं तारे आसमान में अकबक आँख का गोला।गोला ।
कहीं है थोड़ी जगह जहाँ सुखा सकूँ इस पुरानी थकान में भीगे बाल
या पूरी पृथ्वी माघ की बारिश में भींगती बकरी कान पटपटाती।पटपटाती ।
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