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Kavita Kosh से
वैसे भी मैं
स्वाभाव से घुमक्कर घुमक्कड़ हूँ
विचरना पसंद है मुझे
खानाबदोश की तरह।
इंतजार लिखते हुए।
मेरे पद चिन्हों चिह्नों पर
सँभलती लड़खड़ाती हुई
इंतजार को मिटाती हुई
शाम को गिलहरियों में
जब रोज मुरझाने लगता हूँ मैं
वृक्षों पर इंतजार लिखते हुए।
हरे भरे जंगल में विचरते हुए।
मैं देखता हूँ आसमान से
मैं देखता हूँ बारिश में
एक नदी को सिहरते हुए ....
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