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|संग्रह=फूल नहीं, रंग बोलते हैं-1 / केदारनाथ अग्रवाल
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हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ
कसम रूप की है, कसम प्रेम की हैकसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी--अनोखी हवा हूँ बड़ी बावली हूँ बड़ी मस्तमौला। नहीं कुछ फिकर है,बड़ी ही निडर हूँ। जिधर चाहती हूँ,उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ। न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,न प्रेमी न दुश्मन,जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ।हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं -शहर, गाँव, बस्ती,नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,झुलाती चली मैं झुमाती चली मैं!हवा हूँ, हवा मै बसंती हवा हूँ। चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया;गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर,उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू',उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची -वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी। पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तकइसी में रही मैं!खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,मुझे खूब सूझी -हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी!इसी हार को पा,हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,मज़ा आ गया तब,न सुधबुध रही कुछ,बसंती नवेली भरे गात में थीहवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! मुझे देखते ही अरहरी लजाई,<br>मनाया-बनाया,न मानी, न मानी,<br>;उसे भी न छोड़ा--<br>पथिक आ रहा था,उसी पर ढकेला,<br>;हँसी ज़ोर से मैं,हँसी सब दिशाएँ<br>,हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,<br>हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी,<br>;बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!<br>हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ ।।<br>!<br/poem>