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|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना / राजू सारसर ‘राज’
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<poem>
म्हानैं
बगत नीं मिल्यौ
पाच्छौ बावडनैं रो
आगै बधणैं री
आजादी ई खुसगी
कुण धरग्यौ
अै दो पाट
थारै हठ
म्हारी हूंस रा
जिणां बिचाळै किचरीज’र
लोई-झ्याण होय’र
मरणासण
पड्या बाट न्हाळै
छेहळी हेली री
म्हारै पांती सुपना
म्हारै पण बोलणैं माथै
लाग्यौडी है अणचावी पाबंदी।
</poem>
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