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|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना / राजू सारसर ‘राज’
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<poem>
आंख्यां रै खूंजै में
संजोय’र मेल्या
घणां ई सोवणां
मन-मोवणां
की सुपना
म्हैं म्हारै पांती रा
कांई पण ठाह हो
गळगळा वैय’र
टळक जावैला
आंसूडां रै मिस
धार बण’र
फगत लगोलग
बधती किणीं री
नाक रै नांव
अर समाज ररी
बां पिछौकड़ी रीतां सारू
जकी सईकां सूं पडी है
म्हारै पगां में
बेड्यां ज्यूं।
</poem>
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