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म्हैं / राजू सारसर ‘राज’

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|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना / राजू सारसर ‘राज’
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<poem>
म्हैं जणां
फगत म्है ई हो
आभै री अणपार
अणंत, असीम
उंचाई सूं ई उंची
पून सूं ई विस्तृत
व्यापकता समझतौ निजरी
पच्छै’ई पण म्हूं हरमेस
इण न चावतौ बधावणौं
चावतौ पसारणौ
सै’वीर्यता, सै’रदयता
स्नेव, संवेदणा रा सबद
लागता नीरस।
आंख्यां में
कूडै अभिमान रा राता डोरा
चै’रै कूडी करड़ावण री
पळ पळ
क्यूं’कै जणा
फगत ‘म्है’ हो।
अबै देखूंआं आंख्यां सूं
पीड़ रा डीगा परबत
दरकतै रिसतां री चीस।
बैकळा ज्यूं
उमड़ै संवेदणा रा रैळा
समदर री लै’र ज्यूं।
जग-सिन्धु रो
अेक बिन्दु
जिको बणै-धुड़ै
फगत पुन रै फटकारै।
म्हूं अेक निबळो पिराणी
तिल सी’क जगां दुबक्यौड़ौ
म्होबी सबदां नै तरसतौड़ौ
हियै घुमड़तै उण रैळै रै
मून नै मै’सूस करतौ कै
‘म्है...म्है की नी हूं।’
</poem>
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