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Kavita Kosh से
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।
उसी तपस्वी-से लंबे थे, देवदारू देवदारु दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर, बनकर ठिठुरे रहे अड़े।
अवयव की दृढ मांसमाँस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का, होता था जिनमें संचार।
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए।
अरी आँधियों ओ बिजली की, दिवा-रात्रि तेरा नतर्ननर्तन, उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावत्तर्न। प्रत्यावर्तन।
मणि-दीपों के अंधकारमय, अरे निराशा पूर्ण भविष्य
उद्वेलित लहरों-सा होता, उस समृद्धि का सुख संचार।
कीर्ति, दीप्तीदीप्ति, शोभा थी नचती, अरूण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।
सब में एक अचेतन गति थी, जिसमें पिछड़ा रहे समीर।
वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा, अंग-भंगियों का नत्तर्ननर्तन, मधुकर के मरंद-उत्सव-सा, मदिर भाव से आवत्तर्न।आवर्तन।
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