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चल पड़े कब से हृदय दो,
पथिक-से अश्रांत,अश्रांत।
यहाँ मिलने के लिये,
एक गृहपति, दूसरा था
अतिथि विगत-विकार,विकार।
प्रश्न था यदि एक,
एक जीवन-सिंधु था,
तो वह लहर लघु लोल,लोल।
एक नवल प्रभात,
एक था आकाश वर्षा
का सजल उद्धाम,उद्धाम।
दूसरा रंजित किरण से
नदी-तट के क्षितिज में
नव जलद सांयकाल-सांयकाल।
खेलता दो बिजलियों से
लड़ रहे थे अविरत युगल
थे चेतना के पाश,पाश।
एक सकता था न
था समर्पण में ग्रहण का
एक सुनिहित भाव,भाव।
थी प्रगति, पर अड़ा रहता
चल रहा था विजन-पथ पर
मधुर जीवन-खेल,खेल।
दो अपरिचित से नियति
नित्य परिचित हो रहे
तब भी रहा कुछ शेष,शेष।
गूढ अंतर का छिपा
दूर, जैसे सघन वन-पथ-
अंत का आलोक-आलोक।
सतत होता जा रहा हो,
गिर रहा निस्तेज गोलक
जलधि में असहाय,असहाय।
घन-पटल में डूबता था
कर्म का अवसाद दिन से
कर रहा छल-छंद,छंद।
मधुकरी का सुरस-संचय
उठ रही थी कालिमा
धूसर क्षितिज से दीन,दीन।
भेंटता अंतिम अरूण
यह दरिद्र-मिलन रहा
रच एक करूणा लोक,लोक।
शोक भर निर्जन निलय से
मनु अभी तक मनन करते
थे लगाये ध्यान,ध्यान।
काम के संदेश से ही
इधर गृह में आ जुटे थे
उपकरण अधिकार,अधिकार।
शस्य, पशु या धान्य
नई इच्छा खींच लाती,
अतिथि का संकेत-संकेत।
चल रहा था सरल-शासन
देखते थे अग्निशाला
से कुतुहल-युक्त,युक्त।
मनु चमत्कृत निज नियति
एक माया आ रहा था
पशु अतिथि के साथ,साथ।
हो रहा था मोह
चपल कोमल-कर रहा
फिर सतत पशु के अंग,अंग।
स्नेह से करता चमर-
उदग्रीव हो वह संग।
कभी पुलकित रोम राजी
से शरीर उछाल,उछाल।
भाँवरों से निज बनाता
कभी निज़ भोले नयन से
अतिथि बदन निहार,निहार।
सकल संचित-स्नेह
और वह पुचकारने का
स्नेह शबलित चाव,चाव।
मंजु ममता से मिला
देखते-ही-देखते
दोनों पहुँच कर पास,पास।
लगे करने सरल शोभन
वह विराग-विभूति
ईर्षा-पवन से हो व्यस्तव्यस्त।
बिखरती थी और खुलते थे
मैं? कहाँ मैं? ले लिया करते
सभी निज भाग,भाग।
और देते फेंक मेरा
अरी नीच कृतघ्नते!
पिच्छल-शिला-संलग्न,संलग्न।
मलिन काई-सी करेगी
हृदय का राजस्व अपहृत
कर अधम अपराध,अपराध।
दस्यु मुझसे चाहते हैं
विश्व में जो सरल सुंदर
हो विभूति महान,महान।
सभी मेरी हैं, सभी
यही तो, मैं ज्वलित
वाडव-वह्नि नित्य-अशांत,अशांत।
सिंधु लहरों सा करें
आ गया फिर पास
क्रीड़ाशील अतिथि उदार,उदार।
चपल शैशव सा मनोहर
कहा "क्यों तुम अभी
बैठे ही रहे धर ध्यान,ध्यान।
देखती हैं आँख कुछ,
मन कहीं, यह क्या हुआ है ?
आज कैसा रंग? "
नत हुआ फण दृप्त
और सहलाने लागा कर-
कमल कोमल कांत,कांत।
देख कर वह रूप -सुषमा
कहा " अतिथि! कहाँ रहे
तुम किधर थे अज्ञात?
और यह सहचर तुम्हारा
कर रहा ज्यों बात-बात।
कौन हो तुम खींचते यों
मुझे अपनी ओरओर।
ओर ललचाते स्वयं
हटते उधर की ओरओर।
ज्योत्स्ना-निर्झर ठहरती
ही नहीं यह आँख,आँख।
तुम्हें कुछ पहचानने की
पशु कि हो पाषाण
सब में नृत्य का नव छंद,छंद।
एक आलिगंन बुलाता
राशि-राशि बिखर पड़ा
है शांत संचित प्यार,प्यार।
रख रहा है उसे ढोकर
देखता हूँ चकित जैसे
ललित लतिका-लास,लास।
अरूण अरुण घन की सजल
छाया में दिनांत निवास-निवास।
और उसमें हो चला
जैसे सहज सविलास,सविलास।
मदिर माधव-यामिनी का
आह यह जो रहा
सूना पड़ा कोना दीन-दीन।
ध्वस्त मंदिर का,
बसाता जिसे कोई भी न-न।
उसी में विश्राम माया का
अचल आवास,आवास।
अरे यह सुख नींद कैसी,
कामना की किरण का
जिसमें मिला हो ओज़,ओज़।
कौन हो तुम, इसी
कहा हँसकर "अतिथि हूँ मैं,
और परिचय व्यर्थ,व्यर्थ।
तुम कभी उद्विग्न
चलो, देखो वह चला
आता बुलाने आज-आज।
सरल हँसमुख विधु जलद-
लघु-खंड-वाहन साज़।