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Kavita Kosh से
हुए अग्रसर से मार्ग में
छुटे-तीर-से-फिर वे,वे।
यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से
भरा कान में कथन काम का
मन में नव अभिलाषा,अभिलाषा।
लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित
ललक रही थी ललित लालसा
सोमपान की प्यासी,प्यासी।
जीवन के उस दीन विभव में
जीवन की अभिराम साधना
भर उत्साह खड़ी थी,थी।
ज्यों प्रतिकूल पवन मेंतरणी
श्रद्धा के उत्साह वचन,फिर
भ्रांत अर्थ बन आगे आये
बन जाता सिद्धांत प्रथम, फिर
बुद्धि उसी ऋण को सबसे
मन जब निश्चित सा कर लेता
कोई मत है अपना,अपना।
बुद्धि दैव-बल से प्रमाण का
सदा समर्थन करती उसकी
तर्कशास्त्र की पीढ़ीपीढ़ी।
"ठीक यही है सत्य!यही है
और सत्य ! यह एक शब्द, तू
मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का
सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी
रट-सी लगी हुई है,है।
किन्तु स्पर्श से तर्क-करो, क्यों
असुर पुरोहित उस विपल्व से
बचकर भटक रहे थे,थे।
वे किलात-आकुलि थेजिसने
देख-देख कर मनु का पशु,जो
उनकी आमिष-लोलुप-रसना
'क्यों किलात ! खाते-खाते तृण
और कहाँ तक जीऊँ,जीऊँ।
कब तक मैं देखूँ जीवितपशु
क्या कोई इसका उपायही
बहुत दिनों पर एक बार तो
आकुलि ने तब कहा-
'देखते नहीं साथ में उसकेउसके।
एक मृदुलता की, ममता की
अंधकार को दूर भगाती , वह
आलोक किरण-सी,सी।
मेरी माया बिंध जाती है
तो भी चलो आज़ कुछकरके
या जो भी आवेंगे सुख-दुख
यों हीं दोनों कर विचार, उस
जहाँ सोचते थे मनु बैठे
"कर्म-यज्ञ से जीवन के
सपनों का स्वर्ग मिलेगा,मिलेगा।
इसी विपिन में मानस की
किंतु बनेगा कौन पुरोहित
अब यह प्रश्न नया है,है।
किस विधान से करूँ यज्ञ
श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी
वह अनंत अभिलाषा,अभिलाषा।
फिर इस निर्ज़न में खोज़ेअब
कहा असुर मित्रों ने अपना
मुख गंभीर बनाये-बनाये।
जिनके लिये यज्ञ होगा
यज़न करोगे क्या तुम?फिर यह
अरे पुरोहित की आशा में
इस जगती के प्रतिनिधि , जिनसे
"मित्र-वरुण जिनकी छाया है
वे पथ-दर्शक हों सब
विधि पूरी होगी मेरी,मेरी।
चलो आज़ फिर से वेदी पर
"परंपरागत कर्मों की वे
कितनी सुंदर लड़ियाँ,लड़ियाँ।
जिनमें-साधन की उलझी हैं
जिसमें सुख की घड़ियाँ,घड़ियाँ।------------------------------------
जिनमें है प्रेरणामयी-सी
संचित कितनी कृतियाँ,कृतियाँ।
पुलकभरी सुख देने वाली
साधारण से कुछ अतिरंजित
गति में मधुर त्वरा-सीसी।
उत्सव-लीला, निर्ज़नता निर्जनता की
जिससे कटे उदासी।
होगा श्रद्धा को भी।"
प्रसन्नता से नाच उठा, मन
यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी
धधक रही थी ज्वाला,ज्वाला।
दारुण-दृश्य रुधिर के छींटे
वेदी की निर्मम-प्रसन्नता,
पशु की कातर वाणी,वाणी।
सोम-पात्र भी भरा,
धरा था पुरोडाश भी आगे।---------------------------------
"जिसका था उल्लास निरखना
वही अलग जा बैठी,बैठी।
यह सब क्यों फिर दृप्त वासना
जिसमें जीवन का संचितसुख
हृदय खोलकर कैसे उसको
वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ
इसमें सुनिहित होगा,होगा।
आज़ वही पशु मर कर भीक्या
श्रद्धा रूठ गयी तो फिरक्या
या वह स्वंय मान जायेगी,
पुरोडाश के साथ सोम का
पान लगे मनु करने,करने।
लगे प्राण के रिक्त अंश को
संध्या की धूसर छाया में
शैल श्रृंग की रेखा,रेखा।
अंकित थी दिगंत अंबर में
श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में
दुखी लौट कर आयी,आयी।
एक विरक्ति-बोझ सी ढोती
सूखी काष्ठ संधि में पतली
अनल शिखा जलती थी,थी।
उस धुँधले गुह में आभा से,
तामस को छलती सी।
किंतु कभी बुझ जाती पाकर
शीत पवन के झोंके,झोंके।
कभी उसी से जल उठती
कामायनी पड़ी थी अपना
कोमल चर्म बिछा के,के।
श्रम मानो विश्राम कर रहा
धीरे-धीरे जगत चल रहा
अपने उस ऋज़ुपथ में,में।
धीरे-धीर धीरे खिलते तारे
मृग जुतते विधुरथ में।
अंचल लटकाती निशीथिनी
अपना ज्योत्स्ना-शाली,शाली।
जिसकी छाया में सुख पावे
उच्च शैल-शिखरों पर हँसती
प्रकृति चंचल बाला,बाला।
धवल हँसी बिखराती
जीवन की उद्धाम लालसा
उलझी जिसमें व्रीड़ा,व्रीड़ा।
एक तीव्र उन्माद और
मधुर विरक्ति-भरी आकुलता,
घिरती हृदय- गगन में,में।
अंतर्दाह स्नेह का तब भी
वे असहाय नयन थे
खुलते-मुँदते भीषणता में,में।
आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था
"कितना दुख दुःख! जिसे मैं चाहूँ
वह कुछ और बना हो,हो।
मेरा मानस-चित्र खींचना
जाग उठी है दारुण-ज्वाला
इस अनंत मधुबन में,में।
कैसे बुझे कौन कह देगा
यह अंनत अवकाश नीड़-सा
जिसका व्यथित बसेरा,बसेरा।
वही वेदना सज़ग पलक में
काँप रहें हैं चरण पवन के,
विस्तृत नीरवता सी-सी।
धुली जा रही है दिशि-दिशि की
अंतरतम की प्यास
विकलता से लिपटी बढ़ती है,है।
युग-युग की असफलता का
विश्व विपुल-आंतक-त्रस्त है
अपने ताप विषम से,से।
फैल रही है घनी नीलिमा
उद्वेलित है उदधि,
लहरियाँ लौट रहीं व्याकुल सीसी।
चक्रवाल की धुँधली रेखा
सघन घूम कुँड़ल मेंकैसी
तिमिर फणी पहने हैमानों
जगती तल का सारा क्रदंन
यह विषमयी विषमता,विषमता।
चुभने वाला अंतरग छल
अति दारुण निर्ममता।