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|रचनाकार=राजू सारसर ‘राज’संजय आचार्य वरुण
|अनुवादक=
|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना मुट्ठी भर उजियाळौ / राजू सारसर ‘राज’संजय आचार्य वरुण
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<poem>
जावण दै म्हनै पूठौ
कठैई गूंगी अर बोळी नीं कर देवै
म्हारी संवेदनावां ने
अठै री चीखती जिनगाणी
कठै मिटा नीं देवै
म्हारै मन री धड़कन ने
अठै रौ कानफाडू
दौड़तौ भागतौ हाकौ
कठै म्हूँ भी एक
मसीन बण’र नीं रैय जावूं
थारै इण मसीनी सैर मांय।
 
जावण दे म्हनै
म्हैं थनै
बठै नीं लेय जावूंला।
क्यूं कै बठै रौ
भारतीय रूप
थनै गंवार लागसी
खेतां में बैंवती
अलमस्त पून
थनै दाय नीं आवैला
बठै रौ सोनलिया झांझरकौ,
मतवाळी भोर
थनै निठल्लै जीवन रौ
ऐसास करावैला
और तो और
दोपारै नीमड़ै री छियां में
थनै बाजरी री रोटी
अर कांदा
दाय नीं आवैला।
 
तू अठै रौ है
अठै रौ ही रै
बठै थारै कानां में
‘एफ. एम’ पर बाजतौ
‘पॉप’ अर ‘रैप’
‘वी’ अर ‘एम टी.वी.’ री हुल्लड़
नीं पड़सी तो जाणें
थारो तो
जीवणौ ही कीयां हुसी।
 
कम्प्यूटर री वेबसाइटां
अणगिण गाड्यां री
रेलमपेल बिना
थनै जीवन बेकार लागसी।
नीं भायला
तू अठै ही रै
अर म्हनै जावण दे।
 
जे म्हैं अठै रैयौ तो
बेचणी पड़सी
म्हनै म्हारी संस्कृति
नोचणा पड़सी
सैंग रिष्तां नातां रा अरथ
ताक पर राखणौ पड़सी
 
म्हनै म्हारौ मिनखापणौ
अर बोलणाी पड़सी
उधार री बोली
बणनौ पड़सी
एक जीवतौ जागतौ भाठौ।
ना भायला
म्हैं अठै रैवण री
इत्ती मोटी रकम
नीं चूका सकूं।
म्हैं जा रह्यौ हूँ
म्हारै गांव।
</poem>
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