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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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कितनी दूरियों से कितनी बार
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल । मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत –अक्लांत— ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराये पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अँधेरों अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश –प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल, नहीं बनते
केवल चौधिंयाते चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ....
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त –संत्रस्त—
:कितनी बार !
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