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थारै पछै (3) / वासु आचार्य

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<poem>
जमींदौट हुयग्या
बै सिगळै पल
बै सिगळै छिन

जका फूला री
मैहक सागै पखैरूआं री
चैहक सागै

पेड़ा रै पत्ता मांय
गूंजता हा
जीवण रो संगीत बण

जाणै पून रो’ ई
गळौ मुसग्यौ

सूरज नीं रैयौ-सूरज
गुड़कतौ-गौता खावतौ रैयग्यौ
डौळ बायरो
माटी रो लौधौ
ठंडोटीप
तैजहीण

जमींदौट हुयग्यौ-
सौ की
तद‘ई तो

कोई मसाणी राख
औढयै आभै मांय
नीं दीखै-कोई चिड़कली
चूंच मांय तिणको लियौड़ी
पांखां मांय पून भरती

अर म्है
हर पल
हर छिन्न
हुवतो जाय रैयौ हूं
अेक भंभाड़ मारतौ कुवौ
अेक गै रौ सरणाटो

थारै पछै
था...रै पछै
</poem>
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