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थारै पछै (6) / वासु आचार्य

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<poem>
कवितावां री डायरया मांय
हुयगी घणी मैताऊ बा

इण खातर नीं
क बीं मांय लिख्यौड़ी
कवितावां रै पासै
भोर रै पाखी रो
पैलड़ो सनैव गीत हो

ठैठ उण्डै सूं आवती
झरणै री गूंज ही
पत्तां रो संगीत हो
अर लालसा जीवण री
इण खातर भी नीं
क बीं मांय
हौळै सी धर दी
ताजै गुलाब री
दो पांखड्यां
अर लिख दियो-नांव
कदै....कोई बैळा तू
मैताऊ ई खातर हुयगी

बा डायरी
क बाज बा डायरी
डायरी‘ई नी रैई
हुयगी अैड़ी पौथी
जिणमांय गुलाब री पांख्ड़यां
बणगी है-सूकी तुलछी
अर थारो नांव-माळा रो जाप
थारै पछै
था....रै पछै
</poem>
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