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थारै पछै (7) / वासु आचार्य

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<poem>
छींट छींट हुयग्या
बै सिगळै
रंग बिरंगा-रंगा रा
चितराम

जका म्हारै मन रै
मान सरोवर
लै‘रा‘वता हा-लै‘र लै‘र
हंस बण

अबै नी तो रैयौ है
मन मांय-मान सरोवर
अर नीं ई हंस

जद सूं हंसा उड़ग्या-
कागा चींथै है-
जीवतै जागतै मुड़दै नै
मांय रा मांय
म्है ताकू निजर पसार
हाथ ऊंचा कर
सिगळौ अकास

कठै‘ई कोई खूणै
दीख जावै-झबकै थारौ मुळकणौ
आ म्हारी लालसा-जाणू हूं-
लालसा‘ई है जी री
ओ म्हारो बगत-बगत नंी
खाली लालसा‘ई है-

थारै पछै
थारै पछै
</poem>
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