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टाळणौ‘ई चाऊं / वासु आचार्य

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<poem>
सायत् ‘नीं जाणूं’
औ कैवू तो
इण रो अरथ
ओ नीं है
क म्हैं हड़बड़ी रै घैरै मांय
जकड़ीज्योड़ी हूं

जद कि
जिको कीं भी जाणूं हूं
बी नै ‘सायत् नीं जाणूं’ कैय‘र
टाळणौ‘ई चाऊं

कारण-म्हैं नीं चाऊं
क काळा कळूटा
खौफनाक चै‘रा
आपरै तीखै नुकीलै पंजा सूं
चीर दै भौळा अर मासूम काळजा
अर घाव दिखै भी नीं
अर जखम भरीजै भी नीं
साची कैवू म्हारा भायला
ई खातर-इण दिनां
पून मांय जिकी बास
बैवती आवै-म्हारै तिपड़
म्हारै आंगणै तांई
कंपकंपाय दै मनै

तनै भी धूजणी छूटती हुवैला
ई खातर
ई खातर‘ई
म्हैं इण दिनां
(अै भी कोई दिन है ?)

कोई कविता‘ई
नीं रचणी चांऊ

म्हैं चाऊं
इतियास पानां मांय
माण्डणा बै सबद
जिका अबार नीं है
अर जिका अबार है
बै कांच री तीखी किरच्यां सं
लौवुलुवाण हैं
</poem>
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