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ओ आस्था के अरुण !
हाँक ला
उस ज्वलन्त के घोड़े ।घोड़े।
खूँद दालने डालने दे
तीखी आलोक-कशा के तले तिलमिलाते पैरों को
नभ का कच्चा आँगन आंगन!
बढ़ आ, जयी !
सम्भाल चक्रमण्डल यह अपना ।अपना।
मैं कहीं दूर :
मैं बँधा बंधा नहीं हूँ
झुकूँ, डरूँ,
नतमस्तक करूँ प्रतीक्षा
झंझा सिर पर से निकल जाय !
मैं अनवरुद्ध, अप्रतिहत, शुचस्नान शुचस्नात हूँ :
तेरे आवाहन से पहले ही
मैं अपने आप को लुटा चुका हूँ :
अपना नहीं रहा मैं
और नहीं रहने की यह बोधभूमि
तेरी सत्ता से, सार्वभौम ! है परे,
सर्वदा परे रहेगी ।रहेगी।
"एक मैं नहीं हूँ"--—
अस्ति दूसरी इस से बड़ी नहीं है कोई ।कोई।
अधर के अन्तरीप पर खड़ा हुआ मैं
आवाहन करता हूँ :
आओ, भाई !
राजा जिस के होगे, होगे :
मैं तो नित्य उसी का हूँ जिस को
::स्वेच्छा से दिया जा चुका !----
७ मार्च १९६३
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