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|रचनाकार=अभिज्ञात
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<poem>आज-कल-परसो!
तेरा इन्तज़ार बरसो!!
छाया सा दर्पण पे कोहरा
अनजाना अपना ही चेहरा
केक्टस के पत्तों का चुभता
हरियाली का रंग हरा
नैनों की सौतन
फूला हुआ सरसो!
हर डग पे छलती है छांह
थका-हारा जब पाया पांव
चलके भी ना पहुंचे शायद
मुसाफिर हुआ मेरा गांव
क्षणिक प्रणय प्यास
सारी उम्र तरसो!!
</poem>
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<poem>आज-कल-परसो!
तेरा इन्तज़ार बरसो!!
छाया सा दर्पण पे कोहरा
अनजाना अपना ही चेहरा
केक्टस के पत्तों का चुभता
हरियाली का रंग हरा
नैनों की सौतन
फूला हुआ सरसो!
हर डग पे छलती है छांह
थका-हारा जब पाया पांव
चलके भी ना पहुंचे शायद
मुसाफिर हुआ मेरा गांव
क्षणिक प्रणय प्यास
सारी उम्र तरसो!!
</poem>