भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|संग्रह=दुष्चक्र में सृष्टा / वीरेन डंगवाल
}}
<poem>
मानसून का पहला पानी पड़ता है
लम्बे व्याकुल इन्तज़ार के बाद
सुबह से,
अति ऊभ-चूभ मन
याद वही सब करता है
जो याद नहीं अब, फिर भी रह-रह बजता है
ज्यों काँसे की गागर पर बज़ती बजती हों बूंदें बूँदें ।
वह गागर, यों तो फूट चुकी है अब कब की,
पर रक्खी है फिर भी सहेजकर पेटी में ।
</poem>