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प्रभो / जयशंकर प्रसाद

6 bytes added, 06:50, 2 अप्रैल 2015
<poem>
विमल इन्दु की विशाल किरणें
प्रकाश तेरा बता रही है हैं
अनादि तेरी अन्नत माया
जगत् को लीला दिखा रही हैं
ये देखना हो तो देखे सागर
तेरी प्रशंसा का राग प्यारे
तनंगमालाएँ तरंगमालाएँ गा रही हैं
तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना
वो देख सकता है चंद्रिका को
तुम्हारे हसने हँसने की धुन में नदियाँ
निनाद करती ही जा रही हैं
विशाल मन्दिर की यामिनी में
प्रकृति-पद्मिनी के अंशुमाली
असीम उपवन के तुम हो माली
घरा धरा बराबर जता रही हैतो जो तेरी होवे दया दयानिधि
तो पूर्ण होता ही है मनोरथ
सभी ये कहते पुकार करके
यही तो आशा दिला रही है
</poem>
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