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महाक्रीड़ा / जयशंकर प्रसाद

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चक्र के जोड़े कहो कया मोदमय होने को हैं
वृत आकृत कुंकुमारूणा कुंजकुंकुमारूण कंज-कानन-मित्र है
पूर्व में प्रकटित हुआ यह चरित जिसके चित्र हैं
है कहाँ वह भूमि जो रक्खे मेरे चितचोर को
बनके दक्षिणादक्षिण-पौन तुम कलियो से भी हो खेलते
अलि बने मकरन्द की मीठी झड़ी हो झेलते
तुम सजावट देखते हो प्रकृति की अनुराग से
देके ऊषा-पटी पट प्रकृति को हो बनाते सहचरी
भाल के कुंकुम-अरूण की दे दिया बिन्दी खरी
नित्य-नूतन रूप हो उसका बनाकर देखते
वह तुम्हें है देखती, तुम युगल मिलकर खेलते
</poem>
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