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रजनीगंधा / जयशंकर प्रसाद

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दिनकर अपनी किरण-स्वर्णा स्‍वर्ण से रंजित करके
पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के
देखो मन्थर गति से मारूत मचल रहा है
हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है
कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरन्द-मनोहर
किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में
गौर अड़्ग अंग को हरे पल्लवों बीच छिपातीलज्जावती मनोज्ञ ता लता का दृष्य दिखाती
मधुकर-गण का पुज्ज पुंज नहीं इस ओर फिरा है
कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है
म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर
कुल-बालासी बाला सी लजा रही थी जो वासर में
रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में
कितना है अनुराग भरा अस छोटे मन में
निषानिशा-सखी का प्रम प्रेम भरा है इसके तन में
‘रजनी-गंधा’ ना नाम हुआ है सार्थक इसका
चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका
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