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खंजन / जयशंकर प्रसाद

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<poem>
व्याप्त है क्या स्वच्छ सुषमा-सी उषा भूलोक में
स्वर्णमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक में
शुभ्र जलधर एक-दो कोई कहीं दिखला गये
भाग जाने का अनिल-निर्देश वे भी पा गये

पुण्य परिमल अंग से मिलने लगा उल्लास से
हंस मानस का हँसा कुछ बोलकर आवास से
मल्लिका महँकी, अली-अवली मधुर-मधु से छकी
एक कोने की कली भी गन्ध-वितरण कर सकी

बह रही थी कूल में लावण्य की सरिता अहो
हँस रही थी कल-कलध्वनि से प्रफुल्लितगात हो
खिल रहा शतदल मधुर मकरन्द भी पड़ता चुआ
सुरभि-संयच-कोश-सा आनन्द से पूरित हुआ

शरद के हिम-र्विदु मानो एक में ढाले हुए
दृश्यगोचर हो रहे है प्रेम से पाले हुए
है यही क्या विश्ववर्षा का शरद साकार ही
सुन्दरी है या कि सुषमा का खड़ा आकार ही

कौन नीलोज्ज्वल युगल ये दो यहाँ पर खेलते
हैं झड़ी मकरन्द की अरविन्द में ये झेलते
क्या समय था, ये दिखाई पड़ गये, कुछ तो कहो
सत्य क्या जीवन-शरद के ये प्रथम खंजन अहो
</poem>
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