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मिल जाओ गले / जयशंकर प्रसाद

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<poem>
देख रहा हूँ, यह कैसी कमनीयता
छाया-सी कुसुमित कानन में छा रही
अरे, तुम्हारा ही यह तो प्रतिबिम्ब है
क्यों मुझको भुलवाते हो इनमे ? अजी
तुम्हें नहीं पाकर क्या भूलेगा कभी
मेरा हृदय इन्ही काँटों के फूल में
जग की कृत्रिम उत्तमता का बस नहीं
चल सकता है, बड़ा कठोर हृदय हुआ
मानस-सर में विकसित नव अरविन्द का
परिमल जिस मधुकर को छू भी गया हो
कहो न कैसे यह कुरबक पर मुग्ध हो
घूम रहा है कानन में उद्देश्य से
फूलों का रस लेने की लिप्सा नहीं
मघुकर को वह तो केवल है देखता
कहीं वही तो नहीं कुसुम है खिल रहा
उसे न पाकर छोड़ चला जाता अहो
उसे न कहो कि वह कुरबक-रस लुब्ध है
हृदय कुचलने वालों से बस कुछ नहीं
उन्हें घृणा भी कहती सदा नगण्य है
वह दब सकता नहीं, न उनसे मिल सके
जिसमें तेरी अविकल छवि हो छा रही
तुमसे कहता हूँ प्रियतम ! देखो इधर
अब न और भटकाओ, मिल जाओ गले
</poem>
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