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भरत / जयशंकर प्रसाद

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<poem>
हिमगिरि का उतुंग श्रृंग है सामने
खड़ा बताता है भारत के गर्व को
पड़ती इस पर जब माला रवि-रश्मि की
मणिमय हो जाता है नवल प्रभात में
बनती है हिम-लता कुसुम-मणि के खिले
पारिजात का पराग शुचि धूलि है
सांसारिक सब ताप नहीं इस भूमि में
सूर्य-ताप भी सदा सुखद होता यहाँ
हिम-सर में भी खिले विमल अरविन्द हैं
कहीं नहीं हैं शोच, कहाँ संकोच है
चन्द्रप्रभा में भी गलकर बनते नदी
चन्द्रकान्त से ये हिम-खंड मनोज्ञ हैं
फैली है ये लता लटकती श्रृंग में
जटा समान तपस्वी हिम-गिरि की बनी
कानन इसके स्वादु फलो से है भरे
सदा अयचित देते हैं फल प्रेम से
इसकी कैसी रम्य विशाल अधित्यका
है जिसके समीप आश्रम ऋषिवर्य का

अहा ! खेलता कौन यहाँ शिशु सिंह से
आर्यवृन्द के सुन्दर सुखमय भाग्य-सा
कहता है उसको लेकर निज गोद में --
‘खोल, गोल, मुख सिंह-बाल, मैं देखकर
गिन लूँगा तेरे दाँतो को है भले
देखूँ तो कैसे यह कुटिल कठोर हैं’

देख वीर बालक के इस औद्धत्य को
लगी गरजने भरी सिंहिनी क्रोध से
छड़ी तानकर बोला बालक रोष से--
‘बाधा देगी क्रीड़ा में यदि तू कभी
मार खायगी, और तुझे दूँगा नहीं--
इस बच्चे को; चली जा, अरी भाग जा’

अहा, कौन यह वीर बाल निर्भीक है
कहो भला भारतवासी ! हो जानते
यही ‘भरत’ वह बालक हैं, जिस नाम से
‘भारत संज्ञा पड़ी इसी वर भूमि की
कश्यप के गुरूकुल में शिक्षित हो रहा
आश्रम में पलकर कानन में घूमकर

निज माता की गोद मोद भरता रहा
जो पति से भी विछुड़ रही दुदैंव-वश
जंगल के शिशु-सिंह सभी सहचर रहे
राह घूमता हो निर्भीक प्रवीर यह

जिसने अपने बलशाली भुजदंड
भारत का साम्राज्य प्रथम स्थापित किया

वही वीर यह बालक है दुष्यन्त का
भारत का शिर-रत्न ‘भरत’ शुभ नाम है
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