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चित्रकूट (1) / जयशंकर प्रसाद

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<poem>
उदित कुमुदिनी-नाथ हुए प्राची में ऐसे
सुधा-कलश रत्नाकार से उठाता हो जैसे

धीरे-धीरे उठे गई आशा से मन में
क्रीड़ा करने लगे स्वच्छ-स्वच्छन्द गगन में

चित्रकूट भी चित्र-लिखा-सा देख रहा था
मन्दाकिनी-तरंग उसी से खेल रहा था

स्फटिक-शीला-आसीन राम-वैदेही ऐसे
निर्मल सर में नील कमल नलिनी हो जैसे

निज प्रियतम के संग सुखी थी कनन में भी
प्रेम भरा था वैदेही के आनन में भी

मृगशावक के साथ मृगी भी देख रही थी
सरल विलोकन जनकसुता से सीख रही थी

निर्वासित थे राम, राज्य था कानन में भी
सच ही हैं श्रीमान् भोगते सुख वन में भी

चन्द्रतप था व्योम, तारका रत्न जड़े थे
स्वच्छ दीप था सोम, प्रजा तरू-पुज्ज खड़े थे

शान्त नदी का स्त्रोत बिछा था अति सुखकारी
कमल-कली का नृत्य हो रहा था मनहारी

बोल उठा हंस देखकर कमल-कली को
तुरत रोकना पड़ा गूँजकर चतुर अली को

हिली आम की डाल, चला ज्यों नवल हिंडोला
‘आह कौन है’ पच्चम स्वर से कोकिल बोला

मलयानिल प्रहारी-सा फिरता था उस वन में
शान्ति शान्त हो बैठी थी कामद-कानन में

राघव बोले देख जानकी के आनन को-
‘स्वर्गअंगा का कमल मिला कैसे कानन ने

‘निल मघुप को देखा, वहीं उस कंज की कली ने
स्वयं आगमन किया’-कहा यह जनक-लली ने

बोले राघव--‘प्रिय ! भयावह-से इस वन में
शंका होती नहीं तुम्हारे कोमल मन में’

कहा जानकी ने हँसकार--‘अहा ! महल, मन्दिर मनभावन
स्परण न होते तुम्हें कहो क्या वे अति पावन,

रहते थे झंकारपूर्ण जो तव नूपुरर से
सुरभिपूर्ण पुर होता था जिस अन्तःपुर में

जनकसुता ने कहा --‘नाथ ! वह क्या कहते हैं
नारी के सुख सभी साथ पति के रहते हैं

कहो उसे प्रियप्राण ! अभाव रहा फिर किसका
विभव चरण का रेणु तुम्हारा ही है जिसका
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