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अग्निपिंड / प्रवीण काश्‍यप

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<poem>
कोनो भवितव्य घटनाक लेल
कयल गेल अछि अहाँक संधान!
एतेक प्रज्ञा नहि अछि हमरा।
हे दुग्ध-धवल
इजोरिया में नहायल
सद्यः स्नाता रूपसी
हमर प्रत्यक्ष मात्र सँ
अहाँ गमकऽ लगै छी
लाल भेल, रक्तकुसुम जकाँ
हे शीतल रौदक भाँति
स्वर्णमययी मनमोहक कामिनी
की दीब अछि अहाँक
चिरकालिक उष्णता सँ सम्पन्न
सहज सौम्य आर्कषण
कि हम ससरल चलि जाइत छी
अहाँक पाश मे
अ एकर आभास
हमरा तखन होइत अछि
जखन अहाँक उष्ण स्पर्श
हमरा सुनगाबऽ लगैत अछि!
आ अहाँक श्वास
हवा देबऽ लगैत अछि
हमर अग्नि कें !

हम निरन्तर अपन अस्तित्वक
सभ परिभाषा कें निर्मूल कऽ
मात्र ऊर्जाक प्रतिरूप
एक अग्निपिंड भऽ जाइत छी
अहाँक बाहुपाश में!
आ हमर दुनूक प्रेमाग्नि सँ,
जरऽ लागैत अछि व्यसनी समाज!
छाउर भेल पूर्वाग्रही समाज कें
कारण अछि हमर अहाँक रति।
छाउरक बीज अछि अपन प्रेम मे!
एहि छाउर सँ बेर-बेर
जनमैत अछि एकटा मायावी फिनिक्स!
जकर अश्रुक बुन्न सँ
घाव भरि जाइछ अहाँक!
जे वहन करैत अछि
हमर अहाँक अग्नि
ओ समाजक प्रथम पुरूष
किंवा मनु वा कार्तिकेय!
</poem>
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