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भावी वधू / प्रतिभा सक्सेना

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<poem>
अभी तो पाट पर बैठी,
छये मंडप तले,
लपेटे एक पचिया पीत,
मंगल वस्त्र, आया जो ममेरे से,
कि हल्दी ले करें अभिषेक
भाभी-मामियाँ घेरे .
कुँवारी देह पर चढ़ रहा कच्चा तेल,
नयनों में झरप का झलमलाता नीर,
हल्दी का सुनहरा रंग,
तन में दीप्ति बन छलका.
*
अरघ देतीं पथ परिष्कृत कर चलीं,
गौरी- रोहिणी सी कन्यकाएँ .
समर्पेगी अंजली भर धान्य,
यह भावी वधू नत-शीश,
पितरों के चरण तल में .
बिदा को प्रस्तुत तुम्हारी अंशजा,
यह सृष्टि की कुल-वल्लरी आगे बढ़ाने.
असीसो कुल-देवताओँ!
*
हम ऋणी थे सृष्टि के,
पर आज, श्री-सुषमामयी
तुमने हमें दाता बना,
गौरव बढ़ाया.
वहाँ सज्जित देहरी
प्रस्तुत तुम्हारी आरती को.
सत्कृते, शुभ चरण- छापों से,
गृहांगन को सजाती
दाहिने अंगुष्ठ-पग से कलश-धान्य बिखेर,
नेहिल केन्द्र बन
श्री-अन्नपूर्णा सी विराजो,
तृप्ति, पुष्टि बनी प्रतिष्ठित रहो पुण्ये,
धन्य-जीवन हम,
तुम्हें पा कर, सुकन्ये!

*
</poem>