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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
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<poem>
*
मैं तुम पर विश्वास नहीं करती!
भीड़ के साथ,
तमाशबीन बने,
देखा है मैंने तुम्हें .
*
कभी गलियों में,
कभी गालियों में
औरत हमेशा घसीटी जाती है .
किसी की बेटी, बहन, माँ नहीं
एक मादा भर होती है जहाँ .
बिलकुल अकेली!
*
धरती-आकाश के बीच निराधार.
दृष्टियों के असह्य आघात,
कथरी के तार खींच-खींच,
सारी सिलाई उधेड़ने को उतारू.
कहीं कोई नहीं,
टेर ले जिसे,
सारी भीड़ एक.
*
बिना चेहरे के लोग
खतरों से बचते.
सुरक्षा खोल में दुबके .
पौरुष का विकृत और विद्रूप,
ओह, कैसा अनुभव!
*
मैंने देखा है तुम्हें,
उसी भीड़ में.
साक्षी हो तुम!
मैं तुम्हारा विश्वास नहीं करती .
मैं किसी का विश्वास नहीं करती!
*
</poem>