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मन / प्रतिभा सक्सेना

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<poem>
जान रही हूँ तुम्हें, समझ रही हूँ,
तुम वह नहीं जो दिखते हो!
वह भी नहीं-
ऊपर से जो लगते रूखे, तीखे, खिन्न!
चढ़ती-उतरती लहरों के आलोड़न,
आवेग-आवेश के अथिर अंकन
अंतर झाँकने नहीं देते!
*
तने जाल हटते हैं जब,
आघातों के वेगहीन होने पर,
सारी उठा-पटक से परे,
एक सरल-निर्मल सतह
की ओझल खोह से
झाँक जाता है,
शान्त क्षणों में बिंबित
दर्पण सा मन!
ऊपरी तहों में लिपटे भी,
कितने समान हम!
*
</poem>