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किं-बहुना / प्रतिभा सक्सेना

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<poem>

तुमने जो भी दिया, निबाहा सिर-आँखों धर कर, क्षमता भर,
ले इतना विश्वास, कि मेरी लज्जा-मान तुम्हीं रक्खोगे!
*
मेरी त्रुटियाँ, दुर्बलताएँ, मेरे मति-भ्रम, मेरे विचलन,
मेरे यत्न देखना केवल बाकी सभी तुम्हारे अर्पण,
दिशा-ज्ञान की कौन कहे अनजाना हो गंतव्य जहाँ पर
बोध-शोध सब परे धर दिये, आगे ध्यान तुम्हीं रक्खोगे!
*
लीन स्वयं में करना लेना मन, सारी चित्त-वृत्तियाँ धारे
जब स्व-भाव भी डूब, विलय हो इस अगाध सागर में खारे .
निस्पृह हो धर चलूँ यहीं पर, राग-विराग, जिन्हे ओढ़ा था,
सारी डूब समाई तुम में, अब संधान तुम्हीं रक्खोगे!
*
क्षमा-दान मत दो कि, साध्य रहे प्रायश्चित, तप कर धुलना,
निर्मलता में सँजो तुम्हारी करुणा का कण-कण किं-बहुना.
तुमसे कौन शिकायत, शंका या आशंका चिन्ता मुझको .
मन दर्पण बन रहे तुम्हारा, तब तो भान तुम्हीं रक्खोगे!
*
बस इतना विश्वास कि मेरी लज्जा-मान तुम्हीं रक्खोगे!
*
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