भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKRachna |रचनाकार=श्रीनाथ सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatBaalKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKRachna
|रचनाकार=श्रीनाथ सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>
घास फूस का ढेर पड़ा था,
उस पर गिरी एक चिनगारी।
धुआँ हुआ फिर हुआ उजाला,
चमक उठीं फिर गलियाँ सारी।
आग लगी है, आग लगी है,
शोर किया लड़कों ने भारी।
मेला सा लग गया वहाँ पर,
जमा हुये इतने नर नारी।
हँस कर बोली वह चिनगारी,
ओहो ! मैं हूँ कितनी न्यारी।
पहले कौन समझ सकता था,
मुझमें है यह ताकत भारी।
घास फूस सी है यह दुनिया,
नर की इक्छा है चिनगारी।
चाहे तो चमका सकता है,
उसके बल पर वसुधा सारी।
</poem>
|रचनाकार=श्रीनाथ सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>
घास फूस का ढेर पड़ा था,
उस पर गिरी एक चिनगारी।
धुआँ हुआ फिर हुआ उजाला,
चमक उठीं फिर गलियाँ सारी।
आग लगी है, आग लगी है,
शोर किया लड़कों ने भारी।
मेला सा लग गया वहाँ पर,
जमा हुये इतने नर नारी।
हँस कर बोली वह चिनगारी,
ओहो ! मैं हूँ कितनी न्यारी।
पहले कौन समझ सकता था,
मुझमें है यह ताकत भारी।
घास फूस सी है यह दुनिया,
नर की इक्छा है चिनगारी।
चाहे तो चमका सकता है,
उसके बल पर वसुधा सारी।
</poem>